गुरुवार

सजा : बलात्कार को या बलात्कारियों को !


आज हमारे देश के हर एक कोने से एक ही आवाज आ रही है. हमारा कानून ऐसा होना जिससे कोई भी गुनाह करने वाला बचना नहीं चाहिए. चाहे वो कोई आम् इंसान हो या फिर कोई कद्दावर इंसान . लेकिन आपको अपने देश में ऐसा या इस प्रकार का कोई भी कानून मिल पायेगा. नहीं .... क्यूँ कानून को बनाने वाला ही सबसे पहले कानून की धजियां तोड़ता है . ऐसे इस प्रकार की कोई भी आशा निरर्थक है.
आज दो तीन दिनों से , एक लड़की का बलात्कार की घटना से सभी लोग आहात है, पूरा देश कुछ न कुछ सन्देश दे रहा है. चाहे वो आम जनता हो, या कोई अधिकारी और फिर कहे तो वो नेता जो हमारे देश के लिए महान कार्य करते हैं.
उपदेश देना और उस पर कितना अमल होता है. दोनों अलग अलग हैं. हर दिन कोई न कोई उपदेश देता रहता है. लेकिन कोई भी इंसान उस पर कितना अमल करता है. ये उसके सोच पर निर्भर करता है. उसकी सोच पर ही उसका परिवार और समाज का मापदंड शुरू होता है. जैसा सोच होता है वैसा ही इंसान बनता जाता है.
आज हर तरफ से एक शोर सुने दे रहा है. बलात्कारियों को फांसी दो. आम जनता से लेकर नौकर शाही और नेता (महिला नेता) सभी ने एक सुर में कहा है हमारे कानून को थोडा और सख्त बनाने की जरुरत है , लेकिन अभी इसको क्या सजा मिलना चाहिए , किसी ने कुछ नहीं कहा . आखिर सभी कानून बनाने वाले और उसके रक्षक चुप क्यूँ हैं ? आखिर ये चुप्पी कब तक रहेगी ? अगर यही चुप्पी जारी रही तो , ऐसे कांड हमेशा से होते रहे है,,आगे भी होते रहेंगे.
अब समय आ गया है, कुछ करने के लिए. अभी आग लगी हुई है. आम जनता चाहती है. कुछ ऐसा सजा मिले जिससे समाज में ये सन्देश जाए की. अगर आप में से कोई भी इस तरह का घिनौना काम को अंजाम देता है, तो उसके साथ भी  ऐसी ही सजा मिलेगी . लेकिन क्या ऐसा हो पायेगा ? क्या इसको ऐसे सजा मिलेगी जिससे समाज में एक सन्देश जाए ?
आज सोचने के विषय ये है की , जो ऐसे मानसिकता वाले इंसान कहा से आते है, किस समाज से आते है.  उनके आस पास का वातावरण कैसा है. किस प्रकार उनका रहन सहन है.  क्यूँ की जो इस मिली वो इन सबके समाज से मिलता है. अगर एक सभ्य और संसकारी समाज में शायद ही इस तरह का मानसिकता वाला इंसान मिलेगा.
आज हमें एक संस्कारी और सभ्य समाज का निर्माण करना पड़ेगा अगर ऐसा नहीं करेंगे तो आने वाला समय में हमारी माँ , बहन , बेटिओं को घर से बाहर निकलना तो दूर झाकना भी दुर्लभ हो जाएगा.
ऐसे में हम सब को एक जुट हो कर इस ऐसे सजा की मांग करनी चाहिए जिससे इस समाज में एक सन्देश जाए ताकि इस तरह की शर्मनाक घटना दुबारा न हो जिसे हमारे समाज को सोचने पर विवश हो जाए.
अगर सजा के बारे मुझसे अपनी राइ पूछी जाए तो हम तो यही कहेंगे की बलात्कारियों के एक आँख , एक कान , दोनों हाथ और दोनों पैर काट कर शारीर से अलग कर दिया जाए. उसके बाद उससे किसी चौराहे पर छोड़ दिया जाए ताकि उसे और उसके जैसे सोचने वाले एक नहीं एक करोड़ बार सोचें .फांसी की सजा से उसके कुछ अहसाह ही नहीं होगा , क्या दर्द किस चीज का नाम है, उसे उस दर्द का अहसास करवाना जरुरी है. जब दर्द महसूस होगा , वो दिन याद आएंगे की मैंने जो पाप किया है, उसकी सजा शायद यही है.
जरा सोचो, जिसके ये दर्द मिला है, वो अभी किस हालात हे होगी, उस दर्द सिर्फ वही समझ सकता है, सिर्फ वही जिसे ये मिला है. मै तो ईश्वर से ये पार्थना करता हूँ की उसे सहने की ये शक्ति दे !
लेकिन आज हमारे देश की राजनितिक विचारधारा और उनमे आये हुए नेताओं से इस तरह की अपेक्षा करना पूरी तरह से बेईमानी होगी. क्यूँ  हमारे देश की संसद में बहुत कम ऐसे नेता होंगे जो इस तरह की सजा का देने का पक्ष में  होंगे क्यूँ  अगर वो ऐसा करते हैं , तो उनमे से भी कितनों पर इस तरह के गंभीर मुकदमा चल रहे होंगे. ऐसे में इसे लाना अपने पैर कुल्हाड़ी मरने के बराबर होगा. और कोई भी इंसान अपना नुक्सान कभी नहीं चाहता है.
इंतज़ार अब खतम कनरे की जरुरत हैं , दोषियों की सजा देने और दिलवाने का वक्त आ गया ...आगे बढे एक अच्छे परिवार और समाज का निर्माण करें ताकि इस तरह के इंसान से मुक्ति मिल सके .क्यूँ  अच्छे संस्कार ही एक अच्छा समाज का निर्माण कर सकता है. क्यूँ की गलती किसकी है...ये सोचना हम सबका काम है.

समाज और अखबार


हमारे देश में सभी को कुछ बोलने या कहने की पूरी आजादी है , खासकर समाचार पत्रों को , कह सकते हैं की कोई नियम या कानून भी नहीं है , जो इसको देख सके , की ये क्या आप जनता के पास पंहुचा रहे हैं. अगर हम ये कहे की , जिनके पास इनका शिकयत दे सकते हैं , वो भी इनके जैसे  हैं या इनके ही आस पास के लोग हैं. आखिर में हम शिकायत करे तो किस से करे.
एक कहावत है , " साहित्य समाज का दर्पण है " और ये अक्षरश सत्य है . क्यूँ कि इसका पूरा असर हमारे समाज को बनाने या बिगड़ने में योगदान होता है.
आज का समाचार पत्र या टी . वी . न्यूज़ चैनल , क्या दिखाते  हैं, या क्या दिखाना चाहते हैं. किसी के पास कुछ भी सोचने या समझने की  जरुरत नहीं  हैं .,आखिर वो कहा जा रहे है. या कहा जाना चाहते हैं. समाज पर उनका क्या असर होता है. शायद वो अपने स्वार्थ में पूरी तरह से भूल गए हैं. अपना रास्ता भटक गए है. इसका क्या परिणाम होगा शायद ये भी भूल गए है.
आज समाज को एक मार्गदर्शक की जरुरत है जो इसको एक दिशा दे सके . लेकिन आज कल को जो समय है , वो उलटी गंगा बह रही है.
आज 6 दिसंबर 2012  है , आप जिसे अखबार पर नजर डालेंगे , वही पर आपको सारी दुनिया की खबर को छोड़ कर , सिर्फ अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने की निंदा करते मिलेंगे. हर कोई अखबार बाला मुसलमानों  को अपना जताने और बताने की कोसिस करता नजर आता है. जिस अखबार के कुछ खास लेखक अयोध्या कांड का अपना अपना परवचन सुना रहा है. चाहे वो हिंदू धर्म का या किस गैर धर्म का . सब एक सुर में हिंदुओं को दोष दे रहे है और मान रहे है. सबको लगता है की जो भी कांड हुआ है . जो हो रहा  है, वो हिंदू लोग  मुसलमान को परेशान कर रहे है.
आज २० साल हो गए बाबरी मस्जिद कांड को. लेकिन हर कोई अखबार वाला, एक गुन और भजन गा रहा है. जो हुआ गलत हुआ था , ऐसा नहीं होना चाहिए था. इन सबकी सजा मुसलमान ही क्यूँ भुगते . यहाँ तो मुसलमानों का को कोई इजज्जत नहीं है. हर कोई अपना विचार प्रगट कर रहा है.
लेकिन क्या कोई इसके दर्द को दोनों के तरफ से सोच रहा  है ? क्या गम और दुःख एक तरफ  है ? एक दंगे होते है तो सिर्फ एक समुदाय के लोग मरते या घायल होते हैं ? जो कुछ घटना होता है , तो क्या एक ही समुदाय का नुक्सान होता है. ?
लेकिन ये तो हिंदुस्तान है, हर कोई एक हिंदू  समुदाय को  दोष देता है , आखिर क्यूँ ?  हिंदू के परिवार में सुख दुःख का अहसास नहीं  होता है ? क्या हिंदू लोग दंगे में नहीं मरते या घायल होते है ? तो फिर सिर्फ हिंदू ही दोषी क्यूँ ?
जहा तक मेरा विचार है ,  जो लोग या संस्था इस तरह का विचार देते हैं, या प्रकशित करते है, ये अपनी छोटी और गिरी हुई मानसिकता का परिचय देते हैं. वो कभी भी किसी का अच्छा सोच ही नहीं सकते हैं. कभी किसी का भला नहीं सोच सकते हैं. वो सिर्फ अपनी स्वार्थ पूर्ति हेतु अपना जमीर को बेच देते है. ऐसे में वो अपना देश और समाज के बारे में क्या सोच सकता है. और हमें ऐसे लोगों से कोई अच्छी अपेक्षा भी नहीं रखनी चाहिए.
हिंदुस्तान की जनता तो सही मायने में ज न ता है ये कुछ भी नहीं जानती है. जानते तो वो लोग हैं जो इन भोले भले पढ़े लिखे महामूर्खो  को भी पढ़ा लिखा कर संसद और विधान सभा तक पहुच कर हम सब पर शासन करते हैं. और जब तक हम एक तरफ़ा सोचते रहेंगे ये हम पर राज करते रहेंगे !
सिक्के के दोनों पहलु को देखने वाला यहाँ पर कोई है नहीं. जो देख सकते हैं, वो देखते नहीं है.  जिनको देखना चाहिए. वो तो अंधे और बहरे भी है. ऐसे में क्या आशा करना चाहिए.

जागने का समय है ,
जागना भी चाहता हूँ .
पर जग नहीं पाता  हूँ,
जनता हूँ की , मै देर हूँ,
फिर भी सोच नहीं पाता हूँ.
इन्तहा हो गयी इन्तजार की,
फिर इन्तजार है,
कोई तो आएगा,
नैया पार लगेगा .