गुरुवार

समाज और अखबार


हमारे देश में सभी को कुछ बोलने या कहने की पूरी आजादी है , खासकर समाचार पत्रों को , कह सकते हैं की कोई नियम या कानून भी नहीं है , जो इसको देख सके , की ये क्या आप जनता के पास पंहुचा रहे हैं. अगर हम ये कहे की , जिनके पास इनका शिकयत दे सकते हैं , वो भी इनके जैसे  हैं या इनके ही आस पास के लोग हैं. आखिर में हम शिकायत करे तो किस से करे.
एक कहावत है , " साहित्य समाज का दर्पण है " और ये अक्षरश सत्य है . क्यूँ कि इसका पूरा असर हमारे समाज को बनाने या बिगड़ने में योगदान होता है.
आज का समाचार पत्र या टी . वी . न्यूज़ चैनल , क्या दिखाते  हैं, या क्या दिखाना चाहते हैं. किसी के पास कुछ भी सोचने या समझने की  जरुरत नहीं  हैं .,आखिर वो कहा जा रहे है. या कहा जाना चाहते हैं. समाज पर उनका क्या असर होता है. शायद वो अपने स्वार्थ में पूरी तरह से भूल गए हैं. अपना रास्ता भटक गए है. इसका क्या परिणाम होगा शायद ये भी भूल गए है.
आज समाज को एक मार्गदर्शक की जरुरत है जो इसको एक दिशा दे सके . लेकिन आज कल को जो समय है , वो उलटी गंगा बह रही है.
आज 6 दिसंबर 2012  है , आप जिसे अखबार पर नजर डालेंगे , वही पर आपको सारी दुनिया की खबर को छोड़ कर , सिर्फ अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने की निंदा करते मिलेंगे. हर कोई अखबार बाला मुसलमानों  को अपना जताने और बताने की कोसिस करता नजर आता है. जिस अखबार के कुछ खास लेखक अयोध्या कांड का अपना अपना परवचन सुना रहा है. चाहे वो हिंदू धर्म का या किस गैर धर्म का . सब एक सुर में हिंदुओं को दोष दे रहे है और मान रहे है. सबको लगता है की जो भी कांड हुआ है . जो हो रहा  है, वो हिंदू लोग  मुसलमान को परेशान कर रहे है.
आज २० साल हो गए बाबरी मस्जिद कांड को. लेकिन हर कोई अखबार वाला, एक गुन और भजन गा रहा है. जो हुआ गलत हुआ था , ऐसा नहीं होना चाहिए था. इन सबकी सजा मुसलमान ही क्यूँ भुगते . यहाँ तो मुसलमानों का को कोई इजज्जत नहीं है. हर कोई अपना विचार प्रगट कर रहा है.
लेकिन क्या कोई इसके दर्द को दोनों के तरफ से सोच रहा  है ? क्या गम और दुःख एक तरफ  है ? एक दंगे होते है तो सिर्फ एक समुदाय के लोग मरते या घायल होते हैं ? जो कुछ घटना होता है , तो क्या एक ही समुदाय का नुक्सान होता है. ?
लेकिन ये तो हिंदुस्तान है, हर कोई एक हिंदू  समुदाय को  दोष देता है , आखिर क्यूँ ?  हिंदू के परिवार में सुख दुःख का अहसास नहीं  होता है ? क्या हिंदू लोग दंगे में नहीं मरते या घायल होते है ? तो फिर सिर्फ हिंदू ही दोषी क्यूँ ?
जहा तक मेरा विचार है ,  जो लोग या संस्था इस तरह का विचार देते हैं, या प्रकशित करते है, ये अपनी छोटी और गिरी हुई मानसिकता का परिचय देते हैं. वो कभी भी किसी का अच्छा सोच ही नहीं सकते हैं. कभी किसी का भला नहीं सोच सकते हैं. वो सिर्फ अपनी स्वार्थ पूर्ति हेतु अपना जमीर को बेच देते है. ऐसे में वो अपना देश और समाज के बारे में क्या सोच सकता है. और हमें ऐसे लोगों से कोई अच्छी अपेक्षा भी नहीं रखनी चाहिए.
हिंदुस्तान की जनता तो सही मायने में ज न ता है ये कुछ भी नहीं जानती है. जानते तो वो लोग हैं जो इन भोले भले पढ़े लिखे महामूर्खो  को भी पढ़ा लिखा कर संसद और विधान सभा तक पहुच कर हम सब पर शासन करते हैं. और जब तक हम एक तरफ़ा सोचते रहेंगे ये हम पर राज करते रहेंगे !
सिक्के के दोनों पहलु को देखने वाला यहाँ पर कोई है नहीं. जो देख सकते हैं, वो देखते नहीं है.  जिनको देखना चाहिए. वो तो अंधे और बहरे भी है. ऐसे में क्या आशा करना चाहिए.

जागने का समय है ,
जागना भी चाहता हूँ .
पर जग नहीं पाता  हूँ,
जनता हूँ की , मै देर हूँ,
फिर भी सोच नहीं पाता हूँ.
इन्तहा हो गयी इन्तजार की,
फिर इन्तजार है,
कोई तो आएगा,
नैया पार लगेगा .

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